एक बूढा वक़्त
रस्ते में
कालेपन से ढाका
ठण्ड से झुलसता
बूढी हड्डियों में दर्द छुपाकर
दांतों की टकराहट के शोर में
दो अधमूंदी आँखों से
अँधेरे को चीरता है
और खुद में कुछ और सिकुड़ता है
जैसे एक माँ के भीतर
एक शिशु सिमटा हुआ है।
हर रात
एक गुज़रा वक़्त
वापस आता है
और खुद-ब-खुद
गुज़र जाता है।
फिर एक सुबह
सूरज की किरणों से
चमकती हुई देह पर
एक शान्ति दिखती है
शिशु की ही तरह
वह अब भी
सोया हुआ है
धरती की गोद में
आराम से
चैन से
सुकून से
गुज़रे हुए एक ऐसे पल के साथ
जो अब
कभी वापस न लौटेगा॥
रस्ते में
सर्दी की चादर ओढ़े हुए
गुज़ारता है एक और रात।कालेपन से ढाका
ठण्ड से झुलसता
बूढी हड्डियों में दर्द छुपाकर
दांतों की टकराहट के शोर में
दो अधमूंदी आँखों से
अँधेरे को चीरता है
और खुद में कुछ और सिकुड़ता है
जैसे एक माँ के भीतर
एक शिशु सिमटा हुआ है।
हर रात
एक गुज़रा वक़्त
वापस आता है
और खुद-ब-खुद
गुज़र जाता है।
फिर एक सुबह
सूरज की किरणों से
चमकती हुई देह पर
एक शान्ति दिखती है
शिशु की ही तरह
वह अब भी
सोया हुआ है
धरती की गोद में
आराम से
चैन से
सुकून से
गुज़रे हुए एक ऐसे पल के साथ
जो अब
कभी वापस न लौटेगा॥