पास पड़ी बंजर धरती से
सड़क किनारे खड़ा किसान
एक दिन यूँ ही पूछ उठा
सोच रहा जो खड़ा खड़ा :
"तू यहां कब से पड़ी है,
किस्मत तेरी रूठी बड़ी है.
क्या तुझे कभी ऊब नहीं होती
उस पार हरियाली को देख
तू दुःख से व्याकुल नहीं होती
क्या ईर्षा कभी तुझमे में आती है
जो तुझमें फलने की आस जगाती है
साँझ का तुझको भय नहीं होता
सूनेपन से तेरा ह्रदय नहीं रोता
कैसे आते हैं तुझमें विचार
कैसा होता है तेरे भीतर हाहाकार?
धरती मुस्कुराई
पर दुःख से उसकी आँखें भर आयीं
छुपाना चाहती थी बहुत कुछ
किन्तु समय ऐसा रहा
कुछ छुपा नहीं पायी
दो पल सुबकी छुप-छुपकर
और कुछ कंपाई रुक-रूककर
फिर ह्रदय एक सा करके
अपने भीतर मज़बूती भरके
वह आखिर बोल पड़ी
मन की कड़ियाँ खोल पड़ी
"सुन किसान तुझको राज़ बताती हूँ
बरसों से चुभती व्यथा सुनाती हूँ
मेरे अंदर भी ऊब होती है
पर बंजर धरती शायद ऐसी ही होती है
क्या जलायेगी मुझको ईर्षा
भिगो नहीं पाती मेरा तन बाढ़ और वर्षा
हे किसान, दिन में मन मेरा खाली होता है
रात को फिर सन्नाटे में चिल्लाकर रोता है
एक समय मैं भी हरी थी
इस बाँझ की तब गोद भरी थी
मैंने भी सुख से खूब फल उपजाया
उस किसान को अपना पुत्र बनाया
वह जितना बीज मुझमें भरता था
उसका दुगना अंकुर मेरी मिट्टी में फलता था
फिर एक लाचारी हुई
अनाज बहुत था
पर ना जाने क्यों
भूखी मारा मारी हुई
तब.…
मेरी बेकद्री हुई
और बेटे की बेकारी हुई
स्वयं ही सोचो
जिसने बीज लगाया था
खून-पसीना बहाया था
वो ही बना भूखा लाचार
चूल्हा उसके घर का हुआ बेकार
तब पुत्र मेरा, वह किसान
बहुत दुखी और हताश हुआ
मेहनत के छले जाने से घोर निराश हुआ
वो एक दिन झूल गया पंखे से नीचे
पास पड़े थे उसके बीवी बच्चे
पीड़ा से व्याकुल हो मैं रोइ बहुत
सोचा काश आ सकती मुझको वह मौत
जो नन्हे हाथ मुझको सहलाते थे
मिटटी में दिन भर लोटे जाते थे
वे भी दूर चले गए
दुर्भाग्यवश कितने जीवन हरे गए
कौनसी माँ देखना चाहेगी ऐसा मंज़र
इससे अच्छी हूँ मैं अब होकर बंजर।।
P.S. Wrote this poem long time back, for some unknown reason it stayed there in my personal diary for a long time. It is disheartening when farmers of our country work hard to grow food and themselves die of hunger and life-threatening struggle they go through to earn a living for their families. We often hear the news of mishandling of food, bad and ignorant ways of storage, people hoarding, black-marketing and thus creating unnecessary shortages to gain maximum profits. On top of it, there are natural calamities and new unknown technology for them to deal with where many of them have no back-ups to sustain the loss. An online site showed that nearly 4 lac farmers have committed suicides since 1995. Its heart-wrenching to see people who work day and night to cater to our hunger-needs, which is a necessity for survival, suffer so much. With this poem, I tried to present to agony of farmers.
Please let me know your views in the comment section of this blog.
सड़क किनारे खड़ा किसान
एक दिन यूँ ही पूछ उठा
सोच रहा जो खड़ा खड़ा :
"तू यहां कब से पड़ी है,
किस्मत तेरी रूठी बड़ी है.
क्या तुझे कभी ऊब नहीं होती
उस पार हरियाली को देख
तू दुःख से व्याकुल नहीं होती
क्या ईर्षा कभी तुझमे में आती है
जो तुझमें फलने की आस जगाती है
साँझ का तुझको भय नहीं होता
सूनेपन से तेरा ह्रदय नहीं रोता
कैसे आते हैं तुझमें विचार
कैसा होता है तेरे भीतर हाहाकार?
धरती मुस्कुराई
पर दुःख से उसकी आँखें भर आयीं
छुपाना चाहती थी बहुत कुछ
किन्तु समय ऐसा रहा
कुछ छुपा नहीं पायी
दो पल सुबकी छुप-छुपकर
और कुछ कंपाई रुक-रूककर
फिर ह्रदय एक सा करके
अपने भीतर मज़बूती भरके
वह आखिर बोल पड़ी
मन की कड़ियाँ खोल पड़ी
"सुन किसान तुझको राज़ बताती हूँ
बरसों से चुभती व्यथा सुनाती हूँ
मेरे अंदर भी ऊब होती है
पर बंजर धरती शायद ऐसी ही होती है
क्या जलायेगी मुझको ईर्षा
भिगो नहीं पाती मेरा तन बाढ़ और वर्षा
हे किसान, दिन में मन मेरा खाली होता है
रात को फिर सन्नाटे में चिल्लाकर रोता है
एक समय मैं भी हरी थी
इस बाँझ की तब गोद भरी थी
मैंने भी सुख से खूब फल उपजाया
उस किसान को अपना पुत्र बनाया
वह जितना बीज मुझमें भरता था
उसका दुगना अंकुर मेरी मिट्टी में फलता था
फिर एक लाचारी हुई
अनाज बहुत था
पर ना जाने क्यों
भूखी मारा मारी हुई
तब.…
मेरी बेकद्री हुई
और बेटे की बेकारी हुई
स्वयं ही सोचो
जिसने बीज लगाया था
खून-पसीना बहाया था
वो ही बना भूखा लाचार
चूल्हा उसके घर का हुआ बेकार
तब पुत्र मेरा, वह किसान
बहुत दुखी और हताश हुआ
मेहनत के छले जाने से घोर निराश हुआ
वो एक दिन झूल गया पंखे से नीचे
पास पड़े थे उसके बीवी बच्चे
पीड़ा से व्याकुल हो मैं रोइ बहुत
सोचा काश आ सकती मुझको वह मौत
जो नन्हे हाथ मुझको सहलाते थे
मिटटी में दिन भर लोटे जाते थे
वे भी दूर चले गए
दुर्भाग्यवश कितने जीवन हरे गए
कौनसी माँ देखना चाहेगी ऐसा मंज़र
इससे अच्छी हूँ मैं अब होकर बंजर।।
P.S. Wrote this poem long time back, for some unknown reason it stayed there in my personal diary for a long time. It is disheartening when farmers of our country work hard to grow food and themselves die of hunger and life-threatening struggle they go through to earn a living for their families. We often hear the news of mishandling of food, bad and ignorant ways of storage, people hoarding, black-marketing and thus creating unnecessary shortages to gain maximum profits. On top of it, there are natural calamities and new unknown technology for them to deal with where many of them have no back-ups to sustain the loss. An online site showed that nearly 4 lac farmers have committed suicides since 1995. Its heart-wrenching to see people who work day and night to cater to our hunger-needs, which is a necessity for survival, suffer so much. With this poem, I tried to present to agony of farmers.
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This poem moves the heart on the situation of our kissaaan. It's the biggest human tragedy and should concern all of us.
ReplyDeleteTrue Vishal. Thanks for dropping by and sharing your views.
DeleteVery tragic. We should bow our head in shame. Would have been better if an English translation also accompanied this poem for the benefit of those who don't know Hindi.
ReplyDeleteSG thanks for pointing it out. Even though its difficult to translate one's own work in another language, I will still try, and get back to you.
DeleteWah.. Bahut khoob... These lines melt the heart
ReplyDeleteI am glad they could. Thanks a lot Vaibhav.
DeleteWords with feeling....
ReplyDeleteThankyou Sheetal
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