नगाड़ा बजा रहा है
शायद बाहर मुझे बुला रहा है
मैं अभी गहरी नींद में हूँ
मुझ तक उसकी हर आवाज़ आ रही है
पर आँखें किसी सपने को
बहुत देर से चबा रहीं हैं
वह कुछ देर और चीखता है
बेबस होकर फिर थोडा झींकता है
मैं, अब भी अन्दर बंद हूँ
खुद को महफूज़ महसूस करते हुए
इस शोर से कभी कभी तंग हूँ
यहाँ अन्दर एक सांझ ढल रही है
कालिमां गहराती हुई आगे बढ़ रही है
इस कालिमां के ख़त्म होने पर
कुछ बेबस चलती बातों के कहीं खोने पर
मैं फिर जाउंगी बाहर
पता नहीं तब दिन होगा या होगी रात
कैसे होंगे वहाँ के हालात
क्या नगाड़ेवाला तब भी वहाँ खड़ा होगा
या निशानी के लिए बस एक नगाड़ा पड़ा होगा
मैं फिर कुछ देर सोचती हूँ
पर एक जकड़न महसूस करते हुए
खुद को भीतर रोकती हूँ..
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