इस शहर में शोर बढ़ रहा है
यह गुस्से से खुद को तरबतर कर रहा है
बस और शोर न करिए
अब इस शोर से डरिये
हर रोज़ पागल हो रहा है आदमी
अपना आपा खो रहा है आदमी
अंधाधुन्द दौड़ती गाड़ियां,
समय से लगा रही हैं होड़
एक मृत्यु निर्भय खड़ी है
हर दूसरे मोड़
चिल्लाहट से सराबोर सड़कें
ऊंची आवाजों में गुम होती धड़कनें
इस शोर में डूबी,
फटी पागल सी आँखें
और आँखों में उतरता खून
जी हाँ, यह शोर छीन रहा है
आपके दिल का सुकून
किसी ने कुछ कह दिया
तो कह दिया
उसे मन में ठून्सें न रखिये
कुछ दर्द चुपचाप सहिये
अपने गुस्से अब तो हरिये
इस शोर से दूर ही रहिये
बस अब और शोर न करिए ...
P.S. This poem is inspired by increasing havoc, impatience, noise and madness in people in big cities. In the name of development, lives are somewhere ruining.
यह गुस्से से खुद को तरबतर कर रहा है
बस और शोर न करिए
अब इस शोर से डरिये
हर रोज़ पागल हो रहा है आदमी
अपना आपा खो रहा है आदमी
अंधाधुन्द दौड़ती गाड़ियां,
समय से लगा रही हैं होड़
एक मृत्यु निर्भय खड़ी है
हर दूसरे मोड़
चिल्लाहट से सराबोर सड़कें
ऊंची आवाजों में गुम होती धड़कनें
इस शोर में डूबी,
फटी पागल सी आँखें
और आँखों में उतरता खून
जी हाँ, यह शोर छीन रहा है
आपके दिल का सुकून
किसी ने कुछ कह दिया
तो कह दिया
उसे मन में ठून्सें न रखिये
कुछ दर्द चुपचाप सहिये
अपने गुस्से अब तो हरिये
इस शोर से दूर ही रहिये
बस अब और शोर न करिए ...
P.S. This poem is inspired by increasing havoc, impatience, noise and madness in people in big cities. In the name of development, lives are somewhere ruining.
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ReplyDeleteहम सचमुच शोर के आदि हो चुके हैं. शहरों में बढती आबादी, नयी दिनचर्या, रहन-सहन के बदले तौर तरीकों के कारण लोगों का एक दुसरे की तरफ व्यवहार भी बदल रहा है. कितनी बार हम बहार निकलते हैं, और देखते हैं सड़क पर कोई घायल पड़ा है, और कोई उसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहता. कारण: "कौन पड़े इस झंझट में." एक बार किसी की मदत करते दौरान मेरे पिता को भी रोका गया, "साहब आपके साथ महिलाएं हैं, क्यों मुसीबत में पड़ते हैं." सबके दिल छोटे होते जा रहे हैं.
ReplyDeleteमैंने गौर किया, कई लोग घंटों तक ऊँची आवाज़ में heavy metal, hard rock, आदि सुनते हैं, और फिर सहनशक्ति कम दिखती है और गुस्से पे काबू नहीं रहता. मैंने खुद दिमाग में थकावट महसूस की ऐसे कुछ गाने सुनने के बाद. सडकों पर लोग छोटी छोटी बात पर मार-पीट, गालियाँ, पिस्तौल निकल देते हैं. आये दिन कुछ न कुछ खबर पढने में आती है. हम क्यों इस शोर में खुद को खो रहे हैं?
इंसान सचमुच अब दयनीय नहीं रह गया, मासूम नहीं रह गया, अब वह इंसान नहीं रह गया...
Thankyou so much for appreciating the work. :)
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ReplyDeleteNice poem you have got talent Shesha . This is remnind me of Amirta Pritam's poem "Mera Shehar" (http://tinyurl.com/6w4sr5c
ReplyDelete). Keep delighting us :) .
Prit: Its soothing :)
ReplyDeleteThankyou so much Prashant . I just read the poem. Its Amazing. Wow! "मेरा शहर सचमुच एक लम्बी बहस की तरह है..... " its simple yet so strong. Similie is mindblowing! Thankyou so much for sharing it...
Nicely Penned & describes the Life in the Metro's superbly indeed..
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